Rigved
ऋग्वेद-संहिता - प्रथम मंडल सूक्त ४३
[ऋषि - कण्व धौर । देवता - रुद्र,३-रुद्र मित्रावरुण,७-९ सोम । छन्द - गायत्री, ९ अनुष्टुप।]
५११.यथा नो मित्रो वरुणो यथा रुद्रश्चिकेतति ।
यथा विश्वे सजोषसः ॥३॥
५०९.कद्रुद्राय प्रचेतसे मीळ्हुष्टमाय तव्यसे ।
वोचेम शंतमं हृदे ॥१॥
वोचेम शंतमं हृदे ॥१॥
विशिष्ट ज्ञान से सम्पन्न, सुखी एवं बलशाली रूद्रदेव के निमित्त किन सुखप्रद स्तोत्रो का पाठ करें ॥१॥
५१०.यथा नो अदितिः करत्पश्वे नृभ्यो यथा गवे ।
यथा तोकाय रुद्रियम् ॥२॥
५१०.यथा नो अदितिः करत्पश्वे नृभ्यो यथा गवे ।
यथा तोकाय रुद्रियम् ॥२॥
अदिति हमारे लिये और हमारे पशुओं, सम्बन्धियों, गौओं और सन्तानो के लिये आरोग्य-वर्धक औषधियो का उपाय (अन्वेषण-व्यवस्था) करें॥२॥
५११.यथा नो मित्रो वरुणो यथा रुद्रश्चिकेतति ।
यथा विश्वे सजोषसः ॥३॥
मित्र,वरुण और रूद्रदेव जिस प्रकार हमारे हितार्थ प्रयत्न करते हैं, उसी प्रकार अन्य समस्त देवगण भी हमारा कल्याण करें॥३॥
५१२.गाथपतिं मेधपतिं रुद्रं जलाषभेषजम् ।
तच्छंयोः सुम्नमीमहे ॥४॥
५१२.गाथपतिं मेधपतिं रुद्रं जलाषभेषजम् ।
तच्छंयोः सुम्नमीमहे ॥४॥
हम सुखद जल एवं औषधियों से युक्त, स्तुतियों के स्वामी, रूद्रदेव से आरोग्यसुख की कामना करते हैं॥४॥
५१३.यः शुक्र इव सूर्यो हिरण्यमिव रोचते ।
श्रेष्ठो देवानां वसुः ॥५॥
५१३.यः शुक्र इव सूर्यो हिरण्यमिव रोचते ।
श्रेष्ठो देवानां वसुः ॥५॥
सूर्य सदृश सामर्थ्यवान ऐर स्वर्ण सदृश दीप्तिमान रूद्रदेव सभी देवो मे श्रेष्ठ और ऐश्वर्यवान है॥५॥
५१४.शं नः करत्यर्वते सुगं मेषाय मेष्ये ।
नृभ्यो नारिभ्यो गवे ॥६॥
५१४.शं नः करत्यर्वते सुगं मेषाय मेष्ये ।
नृभ्यो नारिभ्यो गवे ॥६॥
हमारे अश्वों, मेढो़, भेड़ो, पुरुषो, नारियो और गौओ के लिए वे रूद्रदेव सब प्रकार से मंगलकारी है॥६॥
५१५.अस्मे सोम श्रियमधि नि धेहि शतस्य नृणाम् ।
महि श्रवस्तुविनृम्णम् ॥७॥
५१५.अस्मे सोम श्रियमधि नि धेहि शतस्य नृणाम् ।
महि श्रवस्तुविनृम्णम् ॥७॥
हे सोमदेव! हम मनुष्यो को सैकड़ो प्रकार का ऐश्वर्य, तेजयुक्त अन्न, बल और महान यश प्रदान करें ॥७॥
५१६.मा नः सोमपरिबाधो मारातयो जुहुरन्त ।
आ न इन्दो वाजे भज ॥८॥
५१६.मा नः सोमपरिबाधो मारातयो जुहुरन्त ।
आ न इन्दो वाजे भज ॥८॥
सोमयाग मे बाधा देने वाले शत्रु हमें प्रताड़ित न करें। कृपण और दुष्टो से हम पिड़ित न हों। हे सोमदेव! आप हमारे बल मे वृद्धि करें॥८॥
५१७.यास्ते प्रजा अमृतस्य परस्मिन्धामन्नृतस्य ।
मूर्धा नाभा सोम वेन आभूषन्तीः सोम वेदः ॥९॥
५१७.यास्ते प्रजा अमृतस्य परस्मिन्धामन्नृतस्य ।
मूर्धा नाभा सोम वेन आभूषन्तीः सोम वेदः ॥९॥
हे सोमदेव! यज्ञ के श्रेष्ठ स्थान मे प्रतिष्ठित आप अंमृत से युक्त हैं। यजन कार्य मे सर्वोच्च स्थान पर विभूषित प्रज्ञा को आप जानें॥९॥
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