Rigved
ऋग्वेद-संहिता - प्रथम मंडल सूक्त ३८
[ऋषि - कण्व धौर। देवता - मरुद्गण , छन्द-गायत्री]
४५९.क्व वः सुम्ना नव्यांसि मरुतः क्व सुविता ।
क्वो विश्वानि सौभगा ॥३॥
४५७.कद्ध नूनं कधप्रियः पिता पुत्रं न हस्तयोः ।
दधिध्वे वृक्तबर्हिषः ॥१॥
दधिध्वे वृक्तबर्हिषः ॥१॥
हे स्तुति प्रिय मरुतो! आप कुश के आसनो पर विराजमान हो। पुत्र को पिता द्वारा स्नेहपूर्वक गोद मे उठाने के समान, आप हमे कब धारण करेंगे ?॥१॥
४५८.क्व नूनं कद्वो अर्थं गन्ता दिवो न पृथिव्याः ।
क्व वो गावो न रण्यन्ति ॥२॥
४५८.क्व नूनं कद्वो अर्थं गन्ता दिवो न पृथिव्याः ।
क्व वो गावो न रण्यन्ति ॥२॥
हे मरुतो आप कहां है? किस उद्देश्य से आप द्युलोक मे गमन करते हैं ? पृथ्वी मे क्यों नही घूमते? आपकी गौएं आपके लिए नही रंभाती क्या ? (अर्थात आप पृथ्वी रूपी गौ के समीप ही रहें।)॥२॥)
४५९.क्व वः सुम्ना नव्यांसि मरुतः क्व सुविता ।
क्वो विश्वानि सौभगा ॥३॥
हे मरुद्गणो ! आपके नवीन संरक्षण साधन कहां है? आपके सुख-ऐश्वर्य के साधन कहां है? आपके सौभाग्यप्रद साधन कहां है? आप अपने समस्त वैभव के साथ इस यज्ञ मे आएं॥३॥
४६०.यद्यूयं पृश्निमातरो मर्तासः स्यातन ।
स्तोता वो अमृतः स्यात् ॥४॥
४६०.यद्यूयं पृश्निमातरो मर्तासः स्यातन ।
स्तोता वो अमृतः स्यात् ॥४॥
हे मातृभूमि की सेवा करने वाले आकाशपुत्र मरुतो! यद्यपि आप मरणशील हैं, फिर भी आपकी स्तुति करने वाला अमरता को प्राप्त करता है॥४॥
४६१.मा वो मृगो न यवसे जरिता भूदजोष्यः ।
पथा यमस्य गादुप ॥५॥
४६१.मा वो मृगो न यवसे जरिता भूदजोष्यः ।
पथा यमस्य गादुप ॥५॥
जैसे मृग, तृण को असेव्य नही समझता, उसी प्रकार आपकी स्तुति करने वाला आपके लिए अप्रिय न हो(आप उस पर कृपालु रहें), जिससे उसे यमलोक के मार्ग पर न जाना पड़े॥५॥
४६२.मो षु णः परापरा निरृतिर्दुर्हणा वधीत् ।
पदीष्ट तृष्णया सह ॥६॥
४६२.मो षु णः परापरा निरृतिर्दुर्हणा वधीत् ।
पदीष्ट तृष्णया सह ॥६॥
अति बलिष्ठ पापवृत्तियां हमारी दुर्दशा कर हमारा विनाश न करें, प्यास(अतृप्ति) से वे ही नष्ट हो जायें॥६॥
४६३.सत्यं त्वेषा अमवन्तो धन्वञ्चिदा रुद्रियासः ।
मिहं कृण्वन्त्यवाताम् ॥७॥
४६३.सत्यं त्वेषा अमवन्तो धन्वञ्चिदा रुद्रियासः ।
मिहं कृण्वन्त्यवाताम् ॥७॥
यह सत्य ही है कि कान्तिमान, बलिष्ठ रूद्रदेव के पुत्र वे मरुद्गण, मरु भूमि मे भी अवात स्थिति से वर्षा करते हैं।
४६४.वाश्रेव विद्युन्मिमाति वत्सं न माता सिषक्ति ।
यदेषां वृष्टिरसर्जि ॥८॥
४६४.वाश्रेव विद्युन्मिमाति वत्सं न माता सिषक्ति ।
यदेषां वृष्टिरसर्जि ॥८॥
जब वह मरुद्गण वर्षा का सृजन करते है तो विद्युत रंभाने वाली गाय की तरह शब्द करती है,(जिस प्रकार) गाय बछड़ो को पोषण देती है, उसी प्रकार वह विद्युत सिंचन करती है॥८॥
४६५.दिवा चित्तमः कृण्वन्ति पर्जन्येनोदवाहेन ।
यत्पृथिवीं व्युन्दन्ति ॥९॥
४६५.दिवा चित्तमः कृण्वन्ति पर्जन्येनोदवाहेन ।
यत्पृथिवीं व्युन्दन्ति ॥९॥
मरुद्गण जल प्रवाहक मेघो द्वारा दिन मे भी अंधेरा कर देते है, तब वे वर्षा द्वारा भूमि को आद्र करते है॥९॥
४६६.अध स्वनान्मरुतां विश्वमा सद्म पार्थिवम् ।
अरेजन्त प्र मानुषाः ॥१०॥
४६६.अध स्वनान्मरुतां विश्वमा सद्म पार्थिवम् ।
अरेजन्त प्र मानुषाः ॥१०॥
मरुतो की गर्जना से पृथ्वी के निम्न भाग मे अवस्थित सम्पूर्ण स्थान प्रकम्पित हो उठते है। उस कम्पन से समस्त मानव भी प्रभावित होते है॥१०॥
४६७.मरुतो वीळुपाणिभिश्चित्रा रोधस्वतीरनु ।
यातेमखिद्रयामभिः ॥११॥
४६७.मरुतो वीळुपाणिभिश्चित्रा रोधस्वतीरनु ।
यातेमखिद्रयामभिः ॥११॥
हे मरुतो! (अश्वो को नियन्त्रित करने वाले) आप बलशाली बाहुओ से, अविच्छिन्न गति से शुभ्र नदियो की ओर गमन करें॥११॥
४६८.स्थिरा वः सन्तु नेमयो रथा अश्वास एषाम् ।
सुसंस्कृता अभीशवः ॥१२॥
४६८.स्थिरा वः सन्तु नेमयो रथा अश्वास एषाम् ।
सुसंस्कृता अभीशवः ॥१२॥
हे मरुतो! आपके रथ बलिष्ठ घोड़ो, उत्तम धुरी और चंचल लगाम से भली प्रकार अलंकृत हों॥१२॥
४६९.अच्छा वदा तना गिरा जरायै ब्रह्मणस्पतिम् ।
अग्निं मित्रं न दर्शतम् ॥१३॥
४६९.अच्छा वदा तना गिरा जरायै ब्रह्मणस्पतिम् ।
अग्निं मित्रं न दर्शतम् ॥१३॥
हे याजको! आप दर्शनीय मित्र के समान ज्ञान के अधिपति अग्निदेव की, स्तुति युक्त वाणियों द्वारा प्रशंसा करें॥१३॥
४७०.मिमीहि श्लोकमास्ये पर्जन्य इव ततनः ।
गाय गायत्रमुक्थ्यम् ॥१४॥
४७०.मिमीहि श्लोकमास्ये पर्जन्य इव ततनः ।
गाय गायत्रमुक्थ्यम् ॥१४॥
हे याजको! आप अपने मुख से श्लोक रचना कर मेघ के समान इसे विस्तारित करें। गायत्री छ्न्द मे रचे हुये काव्य का गायन करें॥१४॥
४७१.वन्दस्व मारुतं गणं त्वेषं पनस्युमर्किणम् ।
अस्मे वृद्धा असन्निह ॥१५॥
४७१.वन्दस्व मारुतं गणं त्वेषं पनस्युमर्किणम् ।
अस्मे वृद्धा असन्निह ॥१५॥
हे ऋत्विजो! आप कान्तिमान, स्तुत्य , अर्चन योग्य मरुद्गणो का अभिवादन करें, यहां हमारे पास इनका वास रहे॥१५॥
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