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ऋग्वेद-संहिता - प्रथम मंडल सूक्त २१

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[ऋषि-मेधातिथि काण्व। देवता- इन्द्राग्नि। छन्द -गायत्री]


 
२०३.इहेन्द्राग्नी उप ह्वये तयोरित्स्तोममुश्मसि । ता सोमं ओमापातामा ॥१॥

इस यज्ञ स्थल पर हम इन्द्र एवं अग्निदेवो का आवाहन करते हैं, सोमपान के उन अभिलाषियो की स्तुति करते हुए सोमरस पीने का निवेदन करते हैं॥१॥
२०४.ता यज्ञेषु प्र शंसतेन्द्राग्नी शुम्भता नरः । ता गायत्रेषु गायत ॥२॥

हे ऋत्विजो! आप यज्ञानुष्ठान करते हुये इन्द्र एवं अग्निदेवो की शस्त्रो (स्तोत्रो) से स्तुति करे, विविध अंलकारो से उन्हे विभूषित करे तथा गायत्री छन्दवाले सामगान (गायत्र साम) करते हुये उन्हे प्रसन्न करें॥२॥

२०५.ता मित्रस्य प्रशस्तय इन्द्राग्नी ता हवामहे । सोमपा सोमपीतये ॥३॥

सोमपान की इच्छा करनेवाले मित्रता एवं प्रशंसा के योग्य उन इन्द्र एवं अग्निदेवो को हम सोमरस पीने के लिये बुलाते हैं॥३॥
२०६.उग्रा सन्ता हवामह उपेदं सवनं सुतम् । इन्द्राग्नी एह गच्छताम् ॥४॥
अति उग्र देवगण एवं अग्निदेवो को सोम के अभिषव स्थान(यज्ञस्थल) पर आमन्त्रित करते हैं, वे यहाँ पधारें॥४॥Justify Full
२०७.ता महान्ता सदस्पती इन्द्राग्नी रक्ष उब्जतम् । अप्रजाः सन्त्वत्रिणः॥५॥

देवो मे महान वे इन्द्र अग्निदेव सत्पुरुषो के स्वामी(रक्षक) हैं। वे राक्षसो को वशीभूत कर सरल स्वभाव वाला बनाएँ और मनुष्य भक्षक राक्षसो को मित्र-बांधवो से रहित करके निर्बल बनाएँ॥५॥
२०८.तेन सत्येन जागृतमधि प्रचेतुने पदे । इन्द्राग्नी शर्म यच्छतम् ॥६॥

हे इन्द्राग्ने! सत्य और चैतन्य रूप यज्ञस्थान पर आप संरक्षक के रूप मे जागते रहें और हमे सुख प्रदान करें॥६॥

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