स्वामी विवेकानंद
स्वामी विवेकानंद-संक्षिप्त जीवनी ( Swami Vivekanand Jivan Parichay )
भारत की पावन माती में,
हुए अनेकों संत।
एक उन्ही में उज्जवल तारा,
हुए विवेकानंद ।।
हुए अनेकों संत।
एक उन्ही में उज्जवल तारा,
हुए विवेकानंद ।।
भारतीय पुनर्जागरण के अग्रदूत महापुरुषों में स्वामी विवेकानंद का अन्यतम स्थान है भारतीय पुनर्जागरण के महान सेवक स्वामी विवेकानंद का जन 12 जनवरी सन 1863 में कल्केज में एक सम्मानित परिवार में हुआ था, इनकी माता आध्यात्मिकता में पूर्ण विशवास करती थी परन्तु इनके पिता स्वतंत्र विचार के गौरवपूर्ण व्यक्ति थे l इनका पहला नाम नरेन्द्रनाथ था, शारीरिक दृष्टि से नारेंद्नाथ हष्ट-पुष्ट व् शौर्यवान थे, उनका शारीरिक गठन और प्रभावशाली मुखाकृति प्रत्येक को अपनी और आकर्षित कर लेती थी, रामकृष्ण के शिष्य बनने से पूर्व वे कुश्ती, घुन्सेबाजी, घुड़सवारी और तैरने आदि में भी निपुणता प्राप्त कर चुके थे, उनकी वृद्धि विलक्षण थी, जो पाश्चात्य दर्शन में ढाली गयी थी , उन्होंने देकार्त, ह्य म, कांट, फाखते, स्प्नैजा, हेपिल, शौपेन्हावर, कोमट, डार्विन और मिल आदि पाश्चात्य दार्शनिको कि रचनाओं को गहनता से पढ़ा था, इस अध्ययनों के कारण उनका दृष्टिकोण आलोचनात्मक और विश्लेष्णात्मक हो गया था, प्रारंभ में वे ब्रह्मसमाज कि शिक्षाओं से प्रभावित हुए, परन्तु वैज्ञानिक अध्ययनों के कारण ईश्वर से उनका विश्वास नष्ट हो गया था, पर्याप्त काल तक वे नास्तिक बने रहे और कलकत्ता शहर में ऐसे गुरु कि खोज में घूमते रहे जो उन्हें ईश्वर के अस्तित्व का ज्ञान करा सके ।
रामकृष्ण परमहंस से भेंट :
जब विवेकानंद परमहंस से मिले तो उनकी आयु केवल 25 वर्ष की थी l परमहंस से उनका मिलना मानो दो विभिन्न व्यक्तियों का मिलन प्राचीन तथा नविन विचारधारा का मिलन था, परमहंस की अध्यात्मिक विचारधारा ने विवेकानंद को विशेष रूप से प्रभावित किया, परमहंस से मिलने पर विवेकानंद ने उनसे प्रशन किया कि क्या तुमने ईश्वर को देखा है ? परमहंस ने मुस्कुराते हुए कहा हाँ देखा है, मैं इसे देखता हूँ, जैसे मैं तुम्हे देखता हूँ, इसके पश्चात परमहंस ने विवेकानंद का स्पर्श किया, इस स्पर्श से विवेकानंद को एक झटका सा लगा और उनकी आंतरिक आत्मा चेतन हो उठी, अब उनका आकर्षण परमहंस के प्रति दिन प्रतिदिन बढ़ने लगा, अब उन्होंने रामकृष्ण के आगे अपने को पूर्णरूप से अर्पित कर दिया और उनके शिष्य बन गए,
गुरु के प्रति अनन्य भक्ति और निष्ठा निष्ठा :
एक बार किसी ने गुरुदेव की सेवा में घृणा और निष्क्रियता दिखायी तथा घृणा से नाक-भौं सिकोड़ीं। यह देखकर स्वामी विवेकानन्द को क्रोध आ गया। उस गुरु भाई को पाठ पढ़ाते और गुरुदेव की प्रत्येक वस्तु के प्रति प्रेम दर्शाते हुए उनके बिस्तर केपास रक्त, कफ आदि से भरी थूकदानी उठाकर फेंकते थे। गुरु के प्रति ऐसी अनन्य भक्ति और निष्ठा के प्रताप से ही वे अपने गुरु के शरीर और उनके दिव्यतम आदर्शों की उत्तम सेवा कर सके।
गुरुदेव को वे समझ सके, स्वयं के अस्तित्व को गुरुदेव के स्वरूप में विलीन कर सके। समग्र विश्व में भारत के अमूल्य आध्यात्मिक भंडार की महक फैला सके। उनके इस महान व्यक्तित्व की नींव में थी ऐसी गुरुभक्ति, गुरुसेवा और गुरु के प्रति अनन्य निष्ठा!
विश्वधर्म सम्मलेन में भाग लेना :
इन दिनों हिन्दू धर्म कि पाश्चात्य विचारक कड़ी आलोचना करते थे जिससे विवेकानंद के ह्रदय को गहरा आघात लगता था l इन आलोचनाओं का प्रत्युतर देने के लिए उन्होंने निश्चय किया कि संसार के सामने भारत की आवाज बुलंद की जाय।
31 मई सन 1893 में वे अमेरिका गए और 11 सितम्बर, सन 1893 शिकागो में उन्होंने 'विश्वधर्म संसद' में अत्यंत प्रतिभाशाली सारगर्भित भाषण दिए l विवेकानंद का भाषण संकीर्णता से परे सार्वदेशिकता और मानवता से ओत-प्रोत था l वहां की जनता उनकी वाणी को सुनकर मुग्ध हो जाती थी l विवेकनद के शब्दों में 'जिस प्रकार साड़ी धाराएँ अपने ताल को सागर में लाकर मिल देती है, उसी प्रकार मनुष्य के सारे धर्म ईश्वर की और ले जाते है ।
सम्मलेन भाषण :
"अमेरिकी बहनों और भाइयों,
आपने जिस सौहार्द और स्नेह के साथ हम लोगों का स्वागत किया हैं, उसके प्रति आभार प्रकट करने के निमित्त खड़े होते समय मेरा हृदय अवर्णनीय हर्ष से पूर्ण हो रहा हैं। संसार में संन्यासियों की सब से प्राचीन परम्परा की ओर से मैं आपको धन्यवाद देता हूँ; धर्मों की माता की ओर से धन्यवाद देता हूँ; और सभी सम्प्रदायों एवं मतों के कोटि कोटि हिन्दुओं की ओर से भी धन्यवाद देता हूँ। मैं इस मंच पर से बोलने वाले उन कतिपय वक्ताओं के प्रति भी धन्यवाद ज्ञापित करता हूँ, जिन्होंने प्राची के प्रतिनिधियों का उल्लेख करते समय आपको यह बतलाया हैं कि सुदूर देशों के ये लोग सहिष्णुता का भाव विविध देशों में प्रचारित करने के गौरव का दावा कर सकते हैं। मैं एक ऐसे धर्म का अनुयायी होने में गर्व का अनुभव करता हूँ, जिसने संसार को सहिष्णुता तथा सार्वभौम स्वीकृति, दोनों की ही शिक्षा दी हैं।
हम लोग सब धर्मों के प्रति केवल सहिष्णुता में ही विश्वास नहीं करते, वरन् समस्त धर्मों को सच्चा मान कर स्वीकार करते हैं। मुझे ऐसे देश का व्यक्ति होने का अभिमान हैं, जिसने इस पृथ्वी के समस्त धर्मों और देशों के उत्पीड़ितों और शरणार्थियों को आश्रय दिया हैं। मुझे आपको यह बतलाते हुए गर्व होता हैं कि हमने अपने वक्ष में यहूदियों के विशुद्धतम अवशिष्ट को स्थान दिया था, जिन्होंने दक्षिण भारत आकर उसी वर्ष शरण ली थी, जिस वर्ष उनका पवित्र मन्दिर रोमन जाति के अत्याचार से धूल में मिला दिया गया था । ऐसे धर्म का अनुयायी होने में मैं गर्व का अनुभव करता हूँ, जिसने महान् जरथुष्ट्र जाति के अवशिष्ट अंश को शरण दी और जिसका पालन वह अब तक कर रहा हैं। भाईयो, मैं आप लोगों को एक स्तोत्र की कुछ पंक्तियाँ सुनाता हूँ, जिसकी आवृति मैं बचपन से कर रहा हूँ और जिसकी आवृति प्रतिदिन लाखों मनुष्य किया करते हैं:
रुचिनां वैचित्र्यादृजुकुटिलनानापथजुषाम् । नृणामेको गम्यस्त्वमसि पयसामर्णव इव ।।
– ‘ जैसे विभिन्न नदियाँ भिन्न भिन्न स्रोतों से निकलकर समुद्र में मिल जाती हैं, उसी प्रकार हे प्रभो! भिन्न भिन्न रुचि
के अनुसार विभिन्न टेढ़े-मेढ़े अथवा सीधे रास्ते से जानेवाले लोग अन्त में तुझमें ही आकर मिल जाते हैं।’ यह सभा, जो अभी तक आयोजित सर्वश्रेष्ठ पवित्र सम्मेलनों में से एक हैं, स्वतः ही गीता के इस अद्भुत उपदेश का प्रतिपादन एवं जगत् के प्रति उसकी घोषणा हैं: ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम् । मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः ।।
-जो कोई मेरी ओर आता हैं – चाहे किसी प्रकार से हो – मैं उसको प्राप्त होता हूँ। लोग भिन्न मार्ग द्वारा प्रयत्न करते हुए अन्त में मेरी ही ओर आते हैं।’
साम्प्रदायिकता, हठधर्मिता और उनकी बीभत्स वंशधर धर्मान्धता इस सुन्दर पृथ्वी पर बहुत समय तक राज्य कर चुकी हैं। वे पृथ्वी को हिंसा से भरती रही हैं, उसको बारम्बार मानवता के रक्त से नहलाती रही हैं, सभ्यताओं को विध्वस्त करती और पूरे पूरे देशों को निराशा के गर्त में डालती रही हैं। यदि ये बीभत्स दानवी न होती, तो मानव समाज आज की अवस्था से कहीं अधिक उन्नत हो गया होता । पर अब उनका समय आ गया हैं, और मैं आन्तरिक रूप से आशा करता हूँ कि आज सुबह इस सभा के सम्मान में जो घण्टाध्वनि हुई हैं, वह समस्त धर्मान्धता का, तलवार या लेखनी के द्वारा होनेवाले सभी उत्पीड़नों का, तथा एक ही लक्ष्य की ओर अग्रसर होनेवाले मानवों की पारस्पारिक कटुता का मृत्युनिनाद सिद्ध हो"
” विवेकनद की प्रशंसा में "न्यूयार्क क्रिटिक" (NewYork Critique) ने लिखा "वे ईश्वरीय शक्ति प्राप्त वक्ता है, उनके सत्य वचनों की तुलना में उनका सुन्दर बुद्धिमत्तापूर्ण चेहरा पीले और नारंगी वस्तों में लिप्त हुआ कम आकर्षक नहीं ”
"न्यूयार्क हेरोल्ड (Newyork Herald) ने अपने विचार प्रकट करते हुए लिखा –“विवेकानंद निश्चय ही धर्म-परिषद् में सबसे महान व्यक्ति है, उनके प्रवचन सुनने के पश्चात हम अनुभव करते है कि इस प्रकार विद्वान देश को मिशनरी भेजना हमारा कितना मूर्खतापूर्ण कार्य है l स्वामी विवेकानंद के व्याख्यानों के सार पर टिपण्णी करते हुए रोमारोला ने लिखा –“संसार में कोई भी धर्म मनुष्यता कि गरिमा को इतने ऊँचे स्वर में सामने नहीं लाता जैसा कि हिन्दू धर्म लाता है"
” प्रोफ़ेसर राईट (Prop. Wright) विवेकनद की प्रतिभा से अत्यधिक प्रभावित हुए उन्होंने लिखा - "स्वामी विवेकनद का एक ऐसा व्यक्तित्व है कि अगर इनके व्यक्तित्व कि तुलना विश्विद्यालय के समस्त प्रोफेसरों के ज्ञात एकत्र करके कि जाय तब भी वे अधिक ज्ञानी सिद्ध होंगे” स्वामी विवेकानंद ने फरवरी, 1896 में न्यूयार्क अमेरिका में वेदांत समाज (Vedanta Society) की स्थापना की"
"यूरोप का भ्रमण - अमेरिका से स्वामी जी 15 अप्रैल 1897 को इंग्लैण्ड गए, यह सत्य है की वे भारत में विदेशी शासन से अत्यधिक क्षुब्ध थे, परन्तु मानवता प्रेमी होने के कारण उनके ह्रदय में ब्रिटेन कि जनता के विरुद्ध किसी भी प्रकार के वैमनस्य की भावना नहीं थी, इंग्लैण्ड से वे फ़्रांस, स्विट्जरलैंड और जर्मनी गए, जिन-जिन देशों में वे गए वहां उन्होंने भारतीय संस्कृति और हिन्दू धर्म के गौरव की अमित छाप विदेशी विद्वानों पर डाली, लगभग चार वर्ष तक विदेशों में रहकर वे भारत लौट आये"
रामकृष्ण मिशन की स्थापना :
1899 में उन्होंने अपने गुरु के नाम पर रामकृष्ण सेवाधर्म की स्थापना की, कलकत्ता के निकट वैलूर व् अल्मोड़ा के निकट मायावती हिमालयाज के मैथ इसके प्रधान केंद्र हैं, इन मठों में उन्होंने सन्यासियों को मिशन के कार्यों के लिए प्रशिक्षित किया, इसी समय रामकृष्ण का लोक सेवा कार्यक्रम आरम्भ किया गया, मैथ के साधू सर्वप्रथम संसार त्याग करके अध्यात्मिक जीवन व्यतीत करते थे तथा पीड़ित मानवता की सेवा में अपना सारा समय लगाते थे, इस समय ही भारत में भीषण अकाल पड़ा, अकाल पीड़ितों की मिशन के साधुओं ने हृदय से सेवा की l 4 जुलाई सन 1902 में उनका स्वर्गवास हो गया, विवेकानंद जी की प्रमुख रचनाये (1) ज्ञान योग, (2) राजयोग, (3) भक्ति योग, और (4) कर्मयोग है ।
स्वामी विवेकानंद के राजनैतिक विचार :
यह सत्य है कि विवेकानंद राजनैतिक आन्दोलन के पक्ष में नहीं थे इस पर भी उनकी इच्छा थी कि एक शक्तिशाली बहादुर और गतिशील राष्ट्र का निर्माण हो, वे धर्म को राष्ट्रीय जीवन रूपी संगीत का स्थायी स्वर मानते थे, हिंगल के समान उनका विचार था कि प्रत्येक राष्ट्र का जीवन किसी एक तत्व कि अभिव्यक्ति है, उदाहरण के लिए धर्म भारत के इतिहास का एक प्रमुख निर्धारक तत्व रहा है, स्वामी विवेकानंद शब्दों में "जिस प्रकार संगीत में एक प्रमुख स्वर होता है वैसे ही हर रह्स्त्र के जीवन में एक प्रधान तत्व हुआ करता है, अन्य सभी तत्व इसी में केन्द्रित होते है प्रत्येक राष्ट्र का अपना अन्य सब कुछ गौण है ” भारत का तत्व धर्म है, समाज-सुधार तथा अन्य सब कुछ गौण है ” अन्य शब्दों में विवेकानंद ने राष्ट्रवाद के धार्मिक सिंद्धांत का प्रतिपादन किया, उनका विशवास था कि धर्म ही भारत के राष्ट्रीय जीवन का प्रमुख आधार बनेगा, उनके विचार में किसी राष्ट्र को गौरवशाली, उसके अतीत कि महत्ता की नींव पर ही बनाया जा सकता है, अतीत की उपेक्षा करके राष्ट्र का विकास नहीं किया जा सकता, वे राष्ट्रीयता के अध्यात्मिक पक्ष में विश्वास करते थे उनका विचार था कि भारत में स्थायी राष्ट्रवाद का निर्माण धार्मिकता के आधार पर ही किया जा सकता है,
विवेकानंद का दृढ मत था कि आध्यात्मिकता के आधार पर ही भारत का कल्याण हो सकता है उन्होंने अपने एक व्याख्यान में स्पष्ट शब्दों में कहा था “भारत में विदेशियों को आने दो, शस्त्रबल से जितने दो, किन्तु हम भारतीय अपनी आध्यात्मिकता से समस्त विश्व को जित लेंगे, प्रेम, घृणा पर विजय प्राप्त करेगा, हमारी अध्यात्मिक पश्चिम को जीतकर रहेगी …. उदबुद्ध और सजीव राष्ट्रीय जीवन कि शर्त ही यह है कि हम दर्शन और आध्यात्मिकता से विश्व पर विजय प्राप्त करे ”
स्वतन्त्रता को महत्व देना :
राज दर्शन के क्षेत्र में दूसरा महतवपूर्ण अनुदान उनकी स्वतंत्रता की कल्पना है, अखिल ब्रहमांड में स्वतन्त्रता की प्राप्ति के लिए प्रयास किया जा रहा है, स्वतंत्रता अध्यात्मिक प्रगति का मूल है, स्वतंत्रता प्रकाशस्तंभ विकास की पहली शर्त है, विवेकानंद के स्वतन्त्रता विषयक सिद्धांत अत्यंत व्यापक थे, उनका मत था की समस्त विश्व अपनी अनवरत गति के माध्यम से मुख्यत स्वतंत्रता ही खोज रहा है, मनुष्य का विकास स्वतंत्रता के वातावरण में ही संभव है उनके शब्दों में - "शारीरिक, मानसिक तथा अध्यात्मिक स्वतंत्रता की और अगसर होना तथा दूसरों को उसकी और अगसर होने में सहायता देना मनुष्य का सबसे बड़ा पुरुष्कार है, जो सामजिक नियम इस स्वतंत्रता के विकास में बाधा डालते है वे हानिकारक है, और उन्हें शीघ्र नष्ट करने के लिए प्रयत्न करना चाहिए, उन संस्थाओं को प्रोत्साहन दिया जाए जिनके द्वारा मनुष्य स्वतंत्रता के मार्ग पर अग्रसर होता है।
शक्ति सृजन और निर्भयता का सन्देश देना :
विवेकानंद की सबसे प्रमुख दें भारतियों को शक्ति सृजन और निर्भयता का सन्देश देना था, वे अत्यंत साहसी, निर्भीक और शक्तिशाली व्यक्ति थे, जब देश परतंत्रता की बेड़ियों में जकड़ा हुआ था और भारतीय जन मानस हीनता तथा भी की भावनाओं से पूर्णतया: ग्रस्त था उस समय विवेकानंद ने सुप्त तथा पददलित भारतीय जनता को शक्ति के अभाव में न तो हम व्यक्तिगत अस्तित्व को स्थिर रख सकते है और न ही अपने अधिकारों की रक्षा कर सकते है ” उनके अनुसार "शक्ति ही धर्म है … मेरे धर्म का सार शक्ति है, जो धर्म हृदय में शक्ति का संचार नहीं करता वः मेरी दृष्टि में धर्म नहीं है, शक्ति धर्म से बड़ी वास्तु है और शक्ति से बढ़कर कुछ नहीं ” स्वामीजी का कथन था की प्रत्येक भारतवासी को ज्ञान, चरित्र तथा नैतिकता की शक्तियों का सृजन करना चाहिए, किसी राष्ट्र का निर्माण शक्तियों से होता है अत: व्यक्तियों को अपने पुरुश्तव, मानव गरिमा तथा स्वाभिमान आदि श्रेष्ठ गुणों का विकास करना चाहिए ।
विवेकानंद ने शक्ति के सृजन के साथ भारतियों को निर्भय रहने का भी सन्देश दिया, उन्होंने निर्भयता के सिद्धांत को दार्शनिक आधार पर उचित ठहराया, उनकामत था कि आत्मा का लक्षण सिंह के समान है अत: मनुष्य को भी सिंह के समान निर्भय होकर आचरण करना चाहिए उन्ह्योने भारतियों को संबोधित करते हुए कहा -- "हे वीर, निर्भीक बनो, सहस धारण करों, इस बात पर गर्व करो कि तुम भारतीय हो और गर्व के साथ घोषणा करों, "मैं भारतीय हूँ व् प्रत्येक भारतीय मेरा भी है" उनके यह शब्द सोये हुए भारतवासियों को जगाने के लिए अत्यंत सामयिक और महतवपूर्ण थे, जिस समय देश कि जनता निराशा में डूबी दयनीय जीवन व्यतीत कर रही थी उस समय शक्ति और निर्भीकता का सन्देश देना उनकी प्रखर बुद्धि का एक उज्व्लंत उदहारण है,
देश भक्ति की प्रेरणा देना :
स्वामी विवेकानंद में राष्ट्र भक्ति की भावना कूट-कूट कर भरी थी, वे भारतवासियों को भी मातृभूमि के लिए अपना सब कुछ लुटाने के लिए कहते है, उनका कहना था--"मेरे बंधू बोलो " भारत की भूमि मेरा परम स्वर्ग है, भारत का कल्याण मेरा कर्त्तव्य है, और दिन रात जपो और प्रार्थना करो, हे गोरिश्वर, हे जगज्जनी, मुझे पुरुष्तव प्रदान करो l” अन्य स्थल पर उन्होंने कहा की -- "अगले पचास वर्षों तक भारत माता को छोड़कर हमें और किसी का ध्यान नहीं करना है, डा. वर्मा के शब्दों में "बंकिम की भांति विवेकानंद भी भारत माता को एक आराध्य देवी मानते थे, और उसकी देदीप्यमान प्रतिभा की कल्पना और स्मरण से उनकी आत्म जगमगा उठती थी, यह कल्पना कि भारत देवी कि माता की दृश्यमान विभति है, बंगाल के राष्ट्रवादियों और आतंकवादियों की रचनाओं तथा भाषणों के आधार्बुत धरना रही है उनके लिए देश भक्ति एक शुद्ध और पवित्र आदर्श था ”
विवेकानंद का सामजिक दर्शन :
स्वामी विवेकानंद मुख्य रूप से हमारे सामने एक अध्यात्मवादी और हिन्दू-धर्म के उद्धारक तथा व्यखता के रूप में आते है, परन्तु सामजिक क्षेत्र में भी उन्होंने जो चिंतन कर अपने चिचार प्रकट किये उनकी उपेक्षा नहीं की जा सकती ।
संकीर्ण -जातिवादी का खंडन - यधपि विवेकानंद भारत की प्राचीन संस्कृति के महान पुजारी थे और उनका मजबूती से प्रचार भी करते थे, परन्तु साथ ही उन्होंने प्रचलित रुढीवाधिकता और संकीर्णता के विरुद्ध एक विध्वंसकारी योद्धा के समान संघर्ष भी किया था, वे तत्कालीन जाती-प्रथा के कटु आलोचक थे, स्वामी विवेकानंद जी यह मानते थे की आधुनिक युग में वर्ण -व्यवस्था सामजिक अत्याचारों को बढ़ावा देने वाली है, इस वर्ग एवं जाती-व्यवस्था ने भारतीय समाज को खोखला कर दिया है वे अधिकारवाद के विरोधी थे, सर्वप्रथम उन्होंने परम्परावादी ब्राह्मणों के एकाधिकारवाद पर आघात किया
अस्पर्शयता की निंदा :
अस्पर्श्यता भारतीय समाज का कोढ़ रहा है, विवेकानंद ने स्पर्श्यता का घोर विरोध किया, उनका कहना था कि ईश्वर कि दृष्टि में सब मनुष्य समान है अत: किसी विशेष जाती या वर्ग को हिन् दृष्टि से देखना अत्यंत क्रूर दुःख का विषय है कि उच्च जातियों ने अछुतों या शूद्रों के साथ अत्यंत क्रूर और भेदभाव पूर्ण व्यवहार करके उनका दमन किया है, अछुतों को वे समान अधिकार मिलने चाहिए जिनका कि उपभोग उच्च जातियां करती है, उन्होंने रसोईघर और पतीली-कधी को निरर्थक पंथ का मखौल उदय और कहा कि यह सब व्यर्थ कि बाते है, ईश्वर के बनाये हुए सभी जिव समान है, फिर कोई अस्पर्श क्यों माना जाय
कर्त्तव्य पालन और गृहस्थ जीवन में आस्था :
प्राय: लोग अपने अधिकारों की मांग पर ही बल देते है और कर्तव्यों की उपेक्षा करते है l इस प्रकार की मांगे समाज में संघर्ष को जन्म देती है, विवेकानंद ने अधिकारों की अपेक्षा कर्त्तव्य पालन पर विशेष बल दिया, उनका कथन था प्रत्येक देशवासी को आपके कर्तव्यपालन की और विशेष रूप से ध्यान देना चाहिए,
स्वामी जी स्वय भिक्षु और संस्यासी थे परन्तु गृहस्थ जीवन में उनकी गहरी आस्था थी, उन्होंने निष्काम भाव से अपना गृहस्थ कर्त्तव्य पालन करने वाले व्यक्ति को सर्वोच्च स्थान दिया ,
भारतीय संस्कृति के प्रति गहन आस्था :
स्वामी विवेकानंद भारतीय संस्कृति के महान पुजारी थे, उनका कथन था कि देश के बुद्धि जीवियों को पाश्चात्य संस्कृति कि चमक दमक में भारतीय संस्कृति को नहीं भूल जाना चाहिए,
सामजिक एकता पर बल :
स्वामी जी का विचार था कि भारतवासियों को अपनी एकता को बनाये रखने का प्रयास करना चाहिए, यदि देशवासी ब्राह्मण, अब्राह्मण, द्रविड़-आर्य आदि विवादों में ही पड़े रहेंगे तो उनका कल्याण नहीं हो सकेगा,
कर्म करने की प्रेरणा देना
स्वामी विवेकानंद ने सम्पूर्ण भारत का भ्रमण करने के पश्चात् देखा कि देश की अधिकांश निर्धन जनता अत्यंत दरिद्रता का जीवन व्यतीत करती है, उन्होंने यह भी अनुभव किया कि इस व्यापक दरिद्रता और निर्धनता का मूल कारण यहाँ के निवासियों का आलसी और भाग्यवादी होना है,
स्त्रियों के उत्थान में विश्वास :
स्वामी विवेकानंद ने भारत कि स्त्रियों कि दीन-हीन दशा को देखा और उन्होंने उनके अधिकारों तथा उनके सुधार के लिए अपनी आवाज बुलंद की, उनका कथन है कि वैदिककाल में भारतीय स्त्रियाँ पुरुषों के समक्ष समस्त अधिकारों का उपभोग करती थी तथा उन्हें प्रत्येक प्रकार के ज्ञान प्राप्त करने की स्वतंत्रता थी, परन्तु यह दुःख: का विषय है कि आज भारत कि नारी केवल उपभोग की वास्तु मात्र बनकर रह गयी है, पुरुष उसे केवल दासी मात्र समझते है परन्तु यदि हमने स्त्रियों की दशा को नहीं सुधार तो राष्ट्र कल्याण की कल्पना करना पूर्णतया: व्यर्थ है।
धर्म की सच्ची व्याख्या और आडम्बरों का विरोध :
विवेकानंद के अनुसार मानवता या दरिद्रों की सेवा करना ही मानव का सच्चा धर्म है जो निर्धनों की उपेक्षा करके पूजापाठ में लीन रहते हैं उन्हें धार्मिक मनुष्य नहीं कहा जा सकता, उनका कथन था -- "हम पूजा के इस ताम-झाम को यानी देवमूर्ति के सामने शंख फूंकना, घंटा बजाना और आरती करना छोड़ दें, हम शास्त्रों के पठान-पाठन और व्यक्तिगत मोक्ष के लिए सब तरह की साधनाओं को छोड़ दें और गावं-गांवं जाकर गरीबों की सेवा, गरीबों पीड़ितों की सेवा करने का बीड़ा उठा लें ” स्वामीजी सच्चे धर्म की व्याख्या करते हुए उन्होंने कहा "धर्म न तो पुस्तों में हैं, न धार्मिक सिद्धांतों में, वह केवल अनुभूति में निवास करता है, धर्म अंध-विश्वास नहीं है, धर्म अलौकिकता में नहीं है, वह जीवन का अत्यंत स्वाभाविक तत्व है।
धार्मिक एकता पर बल देते हुए शिकागो के प्रसिद्ध विश्वधर्म सम्मेलन में अपने विचार प्रकट करते हुए विवेकानंद ने कहा था कि "धार्मिक एकता कैसे हो, इस बात कि यहाँ पर्याप्त चिकित्सा हुई है .....किन्तु, इतना कहना आवश्यक है कि यदि कोई व्यक्ति यह समझता हो कि धार्मिक एकता का मार्ग एक धर्म की विजय और बाकी धर्मों का विनाश है, तो मैं उससे निवेदन करूँगा की बंधू तुम्हारी आशा पूरी नहीं होगी।
पूर्व और पश्चिम के समन्वय पर बल -- स्वामी विवेकानंद संकीर्ण विचार धारा से मुक्त अत्यंत उद्दार विचार के संत थे, वे इस बात को जानते थे कि कि अनेक ऐसी बात है जो पाश्चात्य संस्कृति से ग्रहण कि जा सकती है और उनके अपनाने से भारतवासियों का कल्याण हो सकता है, पश्चिम का समाज रुढियों और अंधविश्वासों से युक्त है तथा वहां के निवासियों ने अत्यंत श्रम के साथ भौतिक और वैज्ञानिक प्रगति की है, उन्हें अपने जातीय अहंकार का परित्याग करके अपने अन्दर आध्यात्मिकता का विकास करना चाहिए, कोरी भौतिक समृद्धि ही पश्चिम का कल्याण नहीं कर सकती, इस क्षेत्र में वे भारत से बहुत कुछ सीख सकते है।
भारत के योरोपिकरण का विरोध :
विवेकानंद पश्चिम की अच्छी बाते ग्रहण करने के तो पक्ष में थे परन्तु पश्चिम की आँख मींचकर नक़ल करने के वे पूर्णतया: विरोधी थे, उनका कथन था भारत को पश्चिम के अन्धाधुनिकरण की प्रेरणा देना पूर्णतया: मूर्खतापूर्ण होगा उनके शब्दों में--"हमें अपने प्रकृति के स्वभाव के अनुसार विकसित होना चाहिए, विदेशी समाजों की कार्य प्रणालियों को अपनाना व्यर्थ है।
विवेकानंद जी भारतवासियों में एक नविन उत्साह तथा चेतना का संचार करके राष्ट्रीय जागरण में जो योगदान किया वह भारत के इतिहास में अमर रहेगा श्री दिनकर के शब्दों में विवेकानंद ने हिन्दू धर्म और भारतीय संस्कृति की जो सेवा की उसका मूल्य नहीं चुकाया जा सकता।
संसार के सन्मुख भारतीय संस्कृति और सभ्यता की श्रेष्ठता की सर्वोच्चता का डंका बजने का श्री विवेकानंद को ही जाता है अपनी ओजस्वी वाणी के द्वारा सोये हुए हिन्दुओं में स्वाभिमान और आत्मगौरव की भावना का जो संचार किया वह उपेक्षित नहीं किया जा सकता।
यात्राएँ :
स्वामी विवेकानन्द विश्व धर्म परिषद् में २५ वर्ष की अवस्था में नरेन्द्र ने गेरुआ वस्त्र धारण कर लिये।
तत्पश्चात् उन्होंने पैदल ही पूरे भारतवर्ष की यात्रा की। सन् १८९३ में शिकागो (अमेरिका) में विश्व धर्म परिषद् हो रही थी। स्वामी विवेकानन्द उसमें भारत के प्रतिनिधि के रूप में पहुँचे। योरोप-अमेरिका के लोग उस समय पराधीन भारतवासियों को बहुत हीन दृष्टि से देखते थे। वहाँ लोगों ने बहुत प्रयत्न किया कि स्वामी विवेकानन्द को सर्वधर्म परिषद् में बोलने का समय ही न मिले। एक अमेरिकन प्रोफेसर के प्रयास से उन्हें थोड़ा समय मिला किन्तु उनके विचार सुनकर सभी विद्वान चकित हो गये। फिर तो अमेरिका में उनका अत्यधिक स्वागत हुआ। वहाँ इनके भक्तों का एक बड़ा समुदाय हो गया। तीन वर्ष तक वे अमेरिका में रहे और वहाँ के लोगों को भारतीय तत्वज्ञान की अद्भुत ज्योति प्रदान करते रहे। उनकी वक्तृत्व-शैली तथा ज्ञान को देखते हुए वहाँ के मीडिया ने उन्हें ‘साइक्लॉनिक हिन्दू’ का नाम दिया।
“आध्यात्म-विद्या और भारतीय दर्शन के बिना विश्व अनाथ हो जाएगा” यह स्वामी विवेकानन्दजी का दृढ़ विश्वास था।अमेरिका में उन्होंने रामकृष्ण मिशन की अनेक शाखाएँ स्थापित कीं। अनेक अमेरिकन विद्वानों ने उनका शिष्यत्व ग्रहण किया। ४ जुलाई सन् १९०२ को उन्होंने देह-त्याग किया। वे सदा अपने को गरीबों का सेवक कहते थे। भारत के गौरव को देश-देशान्तरों में उज्ज्वल करने का उन्होंने सदा प्रयत्न किया। जब भी वो कहीं जाते थे तो लोग उनसे बहुत खुश होते थे। विवेकानन्द का योगदान तथा महत्व उन्तालीस वर्ष के संक्षिप्त जीवनकाल में स्वामी विवेकानंद जो काम कर गए, वे आनेवाली अनेक शताब्दियों तक पीढ़ियों का मार्गदर्शन करते रहेंगे। तीस वर्ष की आयु में स्वामी विवेकानंद ने शिकागो, अमेरिका में विश्व धर्म सम्मेलन में हिंदू धर्म का प्रतिनिधित्व किया और उसे सार्वभौमिक पहचान दिलवाई। गुरुदेव रवींन्द्रनाथ टैगोर ने एक बार कहा था, ‘‘यदि आप भारत को जानना चाहते हैं तो विवेकानंद को पढ़िए। उनमें आप सब कुछ सकारात्मक ही पाएँगे, नकारात्मक कुछ भी नहीं।’’ रोमां रोलां ने उनके बारे में कहा था, ‘‘उनके द्वितीय होने की कल्पना करना भी असंभव है। वे जहाँ भी गए, सर्वप्रथम हुए। हर कोई उनमें अपने नेता का दिग्दर्शन करता।
वे ईश्वर के प्रतिनिधि थे और सब पर प्रभुत्व प्राप्त कर लेना ही उनकी विशिष्टता थी हिमालय प्रदेश में एक बार एक अनजान यात्री उन्हें देखकर ठिठककर रुक गया और आश्चर्यपूर्वक चिल्ला उठा, ‘शिव !’ यह ऐसा हुआ मानो उस व्यक्ति के आराध्य देव ने अपना नाम उनके माथे पर लिख दिया हो।’’ मूम्बई मे गेटवे ऑफ़ इन्डिया के निकट स्थित स्वामी विवेकानन्द की प्रतिमुर्ति वे केवल संत ही नहीं थे, एक महान् देशभक्त, वक्ता, विचारक, लेखक और मानव-प्रेमी भी थे। अमेरिका से लौटकर उन्होंने देशवासियों का आह्वान करते हुए कहा था, ‘‘नया भारत निकल पड़े मोदी की दुकान से, भड़भूंजे के भाड़ से, कारखाने से, हाट से, बाजार से; निकल पडे झाड़ियों, जंगलों, पहाड़ों, पर्वतों से।’’और जनता ने स्वामीजी की पुकार का उत्तर दिया। वह गर्व के साथ निकल पड़ी। गांधीजी को आजादी की लड़ाई में जो जन-समर्थन मिला, वह विवेकानंद के आह्वान का ही फल था। इस प्रकार वे भारतीय स्वतंत्रता-संग्राम के भी एक प्रमुख प्रेरणा- स्रोत बने। उनका विश्वास था कि पवित्र भारतवर्ष धर्म एवं दर्शन की पुण्यभूमि है। यहीं बड़े-बड़े महात्माओं व ऋषियों का जन्म हुआ, यही संन्यास एवं त्याग की भूमि है तथा यहीं—केवल यहीं—आदिकाल से लेकर आज तक मनुष्य के लिए जीवन के सर्वोच्च आदर्श एवं मुक्ति का द्वार खुला हुआ है। उनके कथन—
‘‘उठो, जागो, स्वयं जागकर औरों को जगाओ। अपने नर-जन्म को सफल करो
और तब तक रुको नहीं जब तक कि लक्ष्य प्राप्त न हो जाए।’’
मृत्यु :
उनके ओजस्वी और सारगर्भित व्याख्यानों की प्रसिद्धि विश्चभर में है। जीवन के अंतिम दिन उन्होंने शुक्ल यजुर्वेद की व्याख्या की और कहा “एक और विवेकानंद चाहिए, यह समझने के लिए कि इस विवेकानंद ने अब तक क्या किया है।” प्रत्यदर्शियों के अनुसार जीवन के अंतिम दिन भी उन्होंने अपने ‘ध्यान’ करने की दिनचर्या को नहीं बदला और प्रात: दो तीन घंटे ध्यान किया। उन्हें दमा और शर्करा के अतिरिक्त अन्य शारीरिक व्याधियों ने घेर रक्खा था। उन्होंने कहा भी था, ‘यह बीमारियाँ मुझे चालीस वर्ष के आयु भी पार नहीं करने देंगी।’ 4 जुलाई, 1902 को बेलूर में रामकृष्ण मठ में उन्होंने ध्यानमग्न अवस्था में महासमाधि धारण कर प्राण त्याग दिए। उनके शिष्यों और अनुयायियों ने उनकी स्मृति में वहाँ एक मंदिर बनवाया और समूचे विश्व में विवेकानंद तथा उनके गुरु रामकृष्ण के संदेशों के प्रचार के लिए 130 से अधिक केंद्रों की स्थापना की।
स्वामीजी के जीवन से जुडी महत्त्वपूर्ण तिथियाँ :
• 12 जनवरी,1863 : कलकत्ता में जन्म
• सन् 1879 : प्रेसीडेंसी कॉलेज में प्रवेश
• सन् 1880 : जनरल असेंबली इंस्टीट्यूशन में प्रवेश
• नवंबर 1881 : श्रीरामकृष्ण से प्रथम भेंट
• सन् 1882-86 : श्रीरामकृष्ण से संबद्ध
• सन् 1884 : स्नातक परीक्षा उत्तीर्ण; पिता का स्वर्गवास
• सन् 1885 : श्रीरामकृष्ण की अंतिम बीमारी
• 16 अगस्त, 1886 : श्रीरामकृष्ण का निधन
• सन् 1886 : वराह नगर मठ की स्थापना
• जनवरी 1887 : वराह नगर मठ में संन्यास की औपचारिक प्रतिज्ञा
• सन् 1890-93 : परिव्राजक के रूप में भारत-भ्रमण
• 25 दिसंबर, 1892 : कन्याकुमारी में
• 13 फरवरी, 1893 : प्रथम सार्वजनिक व्याख्यान सिकंदराबाद में
• 31 मई, 1893 : बंबई से अमेरिका रवाना
• 25 जुलाई, 1893 : वैंकूवर, कनाडा पहुँचे
• 30 जुलाई, 1893 : शिकागो आगमन
• अगस्त 1893 : हार्वर्ड विश्वविद्यालय के प्रो. जॉन राइट से भेंट
• 11 सितंबर, 1893 : विश्व धर्म सम्मेलन, शिकागो में प्रथम व्याख्यान
• 27 सितंबर, 1893 : विश्व धर्म सम्मेलन, शिकागो में अंतिम व्याख्यान
• 16 मई, 1894 : हार्वर्ड विश्वविद्यालय में संभाषण
• नवंबर 1894 : न्यूयॉर्क में वेदांत समिति की स्थापना
• जनवरी 1895 : न्यूयॉर्क में धार्मिक कक्षाओं का संचालन आरंभ
• अगस्त 1895 : पेरिस में
• अक्तूबर 1895 : लंदन में व्याख्यान
• 6 दिसंबर, 1895 : वापस न्यूयॉर्क
• 22-25 मार्च, 1896 : वापस लंदन
• मई-जुलाई 1896 : हार्वर्ड विश्वविद्यालय में व्याख्यान
• 15 अप्रैल, 1896 : वापस लंदन
• मई-जुलाई 1896 : लंदन में धार्मिक कक्षाएँ
• 28 मई, 1896 : ऑक्सफोर्ड में मैक्समूलर से भेंट
• 30 दिसंबर, 1896 : नेपल्स से भारत की ओर रवाना
• 15 जनवरी, 1897 : कोलंबो, श्रीलंका आगमन
• 6-15 फरवरी, 1897 : मद्रास में
• 19 फरवरी, 1897 : कलकत्ता आगमन
• 1 मई, 1897 : रामकृष्ण मिशन की स्थापना
• मई-दिसंबर 1897 : उत्तर भारत की यात्रा
• जनवरी 1898: कलकत्ता वापसी
• 19 मार्च, 1899 : मायावती में अद्वैत आश्रम की स्थापना
• 20 जून, 1899 : पश्चिमी देशों की दूसरी यात्रा
• 31 जुलाई, 1899 : न्यूयॉर्क आगमन
• 22 फरवरी, 1900 : सैन फ्रांसिस्को में वेदांत समिति की स्थापना
• जून 1900 : न्यूयॉर्क में अंतिम कक्षा
• 26 जुलाई, 1900 : यूरोप रवाना
• 24 अक्तूबर, 1900 : विएना, हंगरी, कुस्तुनतुनिया, ग्रीस, मिस्र आदि देशों की यात्रा
• 26 नवंबर, 1900 : भारत रवाना
• 9 दिसंबर, 1900 : बेलूर मठ आगमन
• जनवरी 1901 : मायावती की यात्रा
• मार्च-मई 1901 : पूर्वी बंगाल और असम की तीर्थयात्रा
• जनवरी-फरवरी 1902 : बोधगया और वारणसी की यात्रा
• मार्च 1902 : बेलूर मठ में वापसी
• 4 जुलाई, 1902 : महासमाधि।
संत विवेकानंद अमर तुम,
अमर तुम्हारी पावन वाणी ।
तुम्हे सदा ही शीश नवाते,
भारत का प्राणी –प्राणी ।।
अमर तुम्हारी पावन वाणी ।
तुम्हे सदा ही शीश नवाते,
भारत का प्राणी –प्राणी ।।
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