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स्वामी दयानंद का काशी शास्त्रार्थ | Swami Dayanand Ka Kashi Shastrarth

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जब काशी शास्त्रार्थ में काशी के मूर्धन्य पंडितों के अग्रणी “स्वामी श्री विशुद्धानन्द जी महाराज” ने दुराग्रही स्वामी दयानन्द को शास्त्रार्थ में धूल चटाई—

स्वामी दयानंद ने अपना तार्किक उल्लू सीधा करने के लिए एक बार काशी में शास्त्रार्थ कर के सनातन धर्म को समाप्त करके सनातन धर्म के स्थान पर आर्य समाज की स्थापना करने के लिए काशी प्रयाण किया, काशी के दिग्गज पंडितों के समाख स्वामी दयानंद का काशी शास्त्रार्थ काशी नरेश महाराज ईश्वरीनारायण सिंह की मध्यस्थता में शास्त्रार्थ प्रारम्भ हुआ, इस शास्त्रार्थ के दर्श के तौर पर काशी नरेश के भाई राजकुमार वीरेश्वर नारायण सिंह, तेजसिंह वर्मा आदि प्रतिष्ठित व्यक्ति भी उपस्थित थे, इस शास्त्रार्थ में क्या हुआ देखें—


सर्वप्रथम पं० ताराचरण तर्करत्न स्वामी जी से वाद आरम्भ करने को प्रस्तुत हुए, स्वामी दयानन्द ने प्रश्न किया यदि आप लोगों को वेदों का प्रामाण्य स्वीकार्य हो तो, वेदों में पाषाणादि मूर्तिपूजा का प्रमाण कहाँ है? प्रस्तुत करें, पं० ताराचरणजी ने वेदों की प्रामाणिकता को यथायोग्य रूप से स्वीकारते हुए भारतीय परम्परा के अनुसार वैदिक शास्त्रों से मूर्ति पूजा के प्रमाणों की झड़ियाँ लगाना शुरू किया, इस पर तिलमिलाते हुए दयानंद ने मन्त्रभाग से इतर शास्त्रों की वेदामूलकता पर प्रश्न खड़े करना शुरू कर दिया, इस पर सारे विद्वान आश्चर्यचकित हो गए कि ये अजीब नवीन मत वाला कौन नया शास्त्रार्थी आ गया? ऐसे विप्रतिपन्न मति स्वामी दयानन्द की बुद्धि ठिकाने लगाने के लिए दयानन्द के अज्ञान दर्प का दलन करने के लिए काशी के मूर्धन्य विद्वान स्वामी विशुद्धानन्द जी ने प्रश्न किया “रचनानुपत्तेश्च नानुमानम्” इस वेदान्तसूत्र की वेदमूलकता क्या है? स्वामी दयानन्द जी निरुत्तर हो गए और लाज बचाने के लिए बोले भिन्न प्रकरण की चर्चा का कोई औचित्य नहीं है, मुझे सारे शास्त्र उपस्थित नहीं



स्वामी विशुद्धानन्द ने कहा यदि सब शास्त्र उपस्थित नहीं हैं तो शास्त्रार्थ के लिए क्यों आये?

स्वामी दयानन्द ने पूछा- क्या आपको सभी शास्त्र उपस्थित हैं? स्वामी विशुद्धानन्द जी ने सिन्हा गर्जना करते हुए कहाँ–  हाँ,  तब स्वामी दयानंद ने पूछा तो धर्म का लक्षण बताइयें, विशुद्धानन्द जी ने पूर्व मीमांसा दर्शन के सूत्र से स्वामी दयानंद का पुनः दर्प दलन करते हुए उत्तर दिया—

चोदना लक्षणोsर्थो धर्मः (अर्थात् वेद के प्रेरक वाक्य धर्म हैं ),

तब तिलमिलाए स्वामी दयानन्द ने अपना रटा-रटाया उत्तर ना पाकर बोला, तुम गलत बोलते हो, धर्म के तो दस लक्षण है-
 
धृतिः क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रहः।
धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम्॥ ~मनुस्मृति

इन दयानंद महाशय को ये भी ज्ञात नहीं था कि मनु स्मृति के धर्म लक्षणों से पूर्वमीमांसा के धर्म लक्षण का बाध नहीं होता, स्वामी दयानंद की इस मूढ़ता पर हंसते हुए स्वामी विशुद्धानन्द जी बोले–

घटं भित्त्वा पटं छित्त्वा कृत्वा रासभरोहणम्।
येन -केन- प्रकारेण प्रसिद्ध : पुरुषो भवेत्॥


अर्थात् घडा फोड़कर , कपडे फाड़कर , गधे पर चढ़कर येन-केन-प्रकारेण व्यक्ति (मूर्ख) प्रसिद्ध होना चाहता है,



तब पं० बालशास्त्री जी सामने आये और स्वामी दयानन्द से धर्मशास्त्र से धर्म के लक्षणों पर प्रश्नोत्तर करने की इच्छा से चर्चा शुरू करने को उद्यत ही हुए थे कि स्वामी दयानन्द अपनी बार-बार डूब रही लुटिया बचाने के लिए उनसे अधर्म का लक्षण पूछ बैठे, जो कि सारे धर्म शास्त्र में कहीं भी वर्णित नहीं, मेधावी पंडित बालशास्त्री ने इसका भी दर्प दलन दुर्दिष्टजन्यत्वं अधर्मत्वमिति कहकर दे दिया, तब दयानंद क्या बोलते?

तब काशी के अन्यान्य पण्डितों ने स्वामी दयानन्द से पूछा- वेद में कहीं प्रतिमा शब्द नहीं है क्या? स्वामी दयानन्द ने कहा सामवेद के षड्विंश ब्राह्मण में प्रतिमा शब्द का उल्लेख है- देवतायतनानि कम्पन्ते दैवत प्रतिमा हसन्तीत्यादीनि।

तो पंडितों ने बोला तो चिल्लाते क्यों हो कि प्रतिमा शब्द कहीं नहीं -कहीं नहीं ?? तब स्वामी दयानंद ने बोला -यहाँ प्रतिमा शब्द के उल्लेख से परमात्मा की प्रतिमा बनाकर पूजा का विधान नहीं है, पण्डितों द्वारा पूछे जाने पर स्वामी जी ने उक्त प्रकरण के मन्त्रों का अर्थ पर कहा कि यहाँ अद्भुत शान्ति प्रकरण की चर्चा है, स्वामी दयानन्द ने पंडित बालशास्त्री जी से पूछा कि आप बताएं कि आपके मत में यहाँ विघ्न दर्शयिता कौन है? बालशास्त्री ने उत्तर दिया इन्द्रियॉ, स्वामी दयानंद ने कहा कि इन्द्रियॉ देखने वाली हैं न कि दिखाने वाली, बालशास्त्री जी ऐसे बड़बोले धूर्त मति से क्या बोलते जिसको ये भी ना मालूम हो कि इन्द्रियों से ही विघ्नों की प्रतीति की जाती है,

स्वामी विशुद्धानन्द जी ने स्वामी दयानन्द जी से पूछा- जैसे मन और सूर्य में ब्रह्मबुद्धि करके उपासना करे, इससे प्रतीकोपासना कही है ; ठीक वैसे ही शालिग्राम पूजन का ग्रहण क्यों नहीं करना चाहिए,



स्वामी दयानंद ने कहा– जैसे मनो ब्रह्मेत्युपासीत इत्यादि कहा है, वैसे पाषाणादि ब्रह्मेत्युपासीत– ऐसा नहीं कहा है, पुनः पाषाणादि का ग्रहण क्यों किया जाय ? सारे पंडित दयानंद की मूर्खता पर हंसने लगे क्योंकि एक ओर तो दयानंद मन (जड़ तत्व ) की प्रतीकोपासना का विधान स्वयं स्वीकृत कर रहे हैं और दूसरी ओर उसी का अपने तर्क से निषेध भी!

तब पण्डित माधवाचार्य ने पूछा – ‘पुराण’ शब्द कहीं वेदों में है वा नहीं? तब स्वामी जी ने कहा – अनेकत्र है किन्तु भूतकालवाची विशेषण के रूप में प्रयुक्त हुआ है । ‘ब्राह्मणानीतिहासपुराणानि’ यहाँ भी पुराना सनातन ब्राह्मण इत्यादि अर्थ ही अभिप्रेत हैं न कि ब्रह्मवैवर्त्त आदि, जबकि अथर्ववेद के ऋचः सामानिच्छन्दांसि पुराणं यजुषा सह० इस उच्छिष्ट ब्रह्म सूक्त में पुराण शब्द बिना विशेषण के स्पष्ट प्रयोग हुआ है जो कि धूर्त्त स्वामी दयानंद ने उद्धृत न किया, मुद्दा भटकाने के लिए स्वामी दयानन्द ने पंडित बालशास्त्री से पूछा व्याकरण में कल्म संज्ञा किसकी है? मेधावी पंडित श्री बालशास्त्री जी ने बता दिया कि महाभाष्य के अमुक स्थल पर अमुक रूप में इसकी चर्चा है, तब माधवाचार्य ने दो पत्रे निकाल कर पण्डितों के बीच फेंक दिये, जिस पर लिखा था– यज्ञ समाप्ति पर दशम दिवस में पुराण पाठ सुने,



पण्डितों ने पूछा– यहाँ पुराण शब्द का क्या अर्थ है? तब स्वामी दयानंद ने कहा- पुराना विद्या– वेदविद्या ब्रह्मविद्या का ग्रहण करना चाहिए– यही अभिप्राय है अन्यथा यहाँ ब्रह्मवैवर्त्त आदि का नाम लिखा होता, पुराण शब्द से पुरानी ब्रह्म विद्या अर्थ करने वाले दयानंद की अल्पज्ञता जगजाहिर थी क्योंकि ब्रह्म विद्या तो ब्रह्मविद्या है , वो नयी क्या और पुरानी क्या? ऐसी कोई भी “पुरानी ब्रह्मविद्या” नहीं जिसका कर्मकाण्ड में पाठ किया जाता हो तथैव पौराणिक सिद्धान्त के अनुसार एक ही “पुराण” १८ स्वरूपों में महर्षि वेदव्यास द्वारा संकलित है तथा इस प्रकार १८ पुराणों का द्योतक है , जिनके १८ उप तथा औप इस प्रकार ५४ प्रकार निर्दिष्ट हैं, उन ५४ नामों का इतना लंबा कथन सूत्र में किया जाए तो सूत्र की सूत्रात्मकता क्या रही? एक बालक भी आसानी से ये तथ्य समझ सकता है, इस प्रकार पुराण शब्द के ब्रह्मवैवर्त्तादि नाम व्याख्यायित ना होने पर अस्वीकार रूप असद् हेतु की यथार्थता स्पष्ट है | ऐसे मूर्खों की चले तो ब्रह्मसूत्र के स्मृतेश्च आदि सूत्रों पर न जाने मन्वादि स्मृतियों का क्या हाल करेंगे! खैर!

इस पर विशुद्धानन्द जी आदि ने अपना अमूल्य समय ऐसे व्यर्थ दुराग्रह युक्त प्रलापकारी धूर्त के चक्कर में नष्ट करना व्यर्थ है, ये सिद्ध कर लिया, यहाँ विलम्ब हो रहा है, चलते हैं, ऐसा कहकर हर हर महादेव और सनातन धर्म के विजय उद्घोषों के साथ उठना शुरू कर दिया, काशी नरेश श्री ईश्वरी नारायण सिंह ने भी स्पष्ट निर्णय दिया कि– ये दयानन्द धूर्त है अतः आप पंडित गण इसके उठाये प्रसंग पर खण्डन -मंडन के ग्रन्थ बनाइये, सभी पण्डितों एवं उनके अनुयायियों ने हर हर महादेव का विजयी उद्घोष से स्वामी दयानन्द को धोबी पछाड़ हार का स्वाद चखाकर यथास्थान प्रस्थान किया, अनन्तर शास्त्रार्थ के मध्यस्थ काशी नरेश की आज्ञानुसार “दयानन्द पराभूति’’ एवं “दुर्जनमुखमर्दन” नामक दो पुस्तकें प्रकाशित कर स्वामी दयानन्द की यथार्थता को जगजाहिर किया, साथ ही पंडित बालशास्त्री जी के हस्ताक्षर युक्त विज्ञापनों से भी इस यथार्थता को जन- सामान्य को सप्रमाण अवगत भी करा दिया गया, परन्तु स्वामी दयानन्द तब भी ना सुधरे! इसी परम्परा के अनुसार स्वामी दयानंद के चेले आर्य समाजियों (अनार्य नमाजियों) का भी ये इतिहास है कि कुत्ते की पूंछ भी कदाचित् सीधी हो जाए किन्तु ये नवार्य नियोगी नमाजी बार-बार मुंह की खाकर भी नहीं सुधरते!


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2 comments

  1. यह आर्य नमाजी इस बात को भी झूठा साबित कर देंगे यह इनकी जन्‍मसिद्ध आदत बन चुकी है।

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    1. Aur tumko ponge pandito ka moot peene ki aadat pad chuki hai

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