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दयानंद, सत्यार्थ प्रकाश और उनके वेदभाष्यों कि वास्तविकता

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पूर्व काल मे भारतवर्ष विद्या बुद्धि और सर्वगुणों की खान था, जिस समय इस भारत वर्ष की कीर्तिपताका भूमंडल के चारो तरफ फहरा रही थी उस समय कनो से सुनी कीर्तियो और नेत्रो से देखने निमित दूर देशो से लोग यहाँ आते थे और अपने नेत्रो को सुफलकर यहाँ की अतुलनीय कीर्ति को अपनी भाषा के ग्रंथो मे रचते थे, वे ग्रंथ आज भी इस देश की गुरुता और कीर्ति का स्मरण कराते है जिस समय यह विश्व अज्ञानान्धकार मे मग्न था पृथ्वी के अधिकांश भाग असभ्यता पूर्ण ही रही थी उस समय यही देश धर्म आस्तिकता और भक्ति और सभ्यता के पूर्ण प्रकाश से जगमगा रहा था, परंतु समय की भी क्या अलौकिक महिमा है की सूर्यमंडल को आकाश मे चढ़कर मध्यान्ह समय महातीक्ष्ण होकर फिर से नीचे उतरना पड़ता है ठीक वही दशा इस देश की हुई, जो सबका सिर मौर था वो पराधीनता के भार से महापीङित हो रहा है, भारत के उपरांत यह देश विदेशी चढ़ाइयों से गारत होकर ऐसा आहत हुआ है, की निस्सार बलहीन होकर आलस्य का भंडार हो गया है, इसकी विद्या बुद्धि सब विदेशी शिक्षा मे लय हो गयी है, धर्म कर्म मे असावधानी हो गयी है, संस्कृत विद्या जो द्विजमात्र का आधार थी, उसके शब्द भी अब शुद्ध नही उच्चारण होते, इस प्रकार धर्म विलुप्त होने से अनेक मतभेद भी हो गए है, जिस पुरुष को कुछ भी सहायता मिली झट उसने अपना नवीन पंथ की कलपना कर शब्द ब्रह्म की कल्पना कर ली, और शिष्यों को उपदेश देना आरंभ कर दिया, इसका फल इस देश मे यह हुआ की फूट का वृक्ष उतपन्न हो गया और सत् धर्म में बाधा पड़ने लगी, इन नवीन मतो से हानि तो हो ही रही थी, इसी समय दयानन्द सरस्वती ने अपना मत चलाकर कोप लीला प्रारम्भ की, इसमे भक्ति भाव, मूर्तिपूजा, अवतार, श्राद्ध, पाप दूर होना, तीर्थ, माहात्म्य आदि का निषेध करके जप तप, आचार विचार, जाति को मेटकर, कर्म से ब्राह्मणादि वर्ण, नियोग-प्रचार, स्त्री के एकादश ( ग्यारह ) पति आदि करने की विधि आदि की आज्ञा  देकर वेद मे रेल, तार, कमेटी आदि का वर्णन कर सब कुछ वेदों के नाम से ही लिख दिया है,




इससे संस्कृत ना जानने वाले सनातन धर्म से हीन हो उनकी व्याख्याँ सुन अपने महान पुरुषो की गति श्याग इस नाम मात्र मे मगन हो जाते है, इनके संगठन का नाम आर्य समाज है, तथाकथित सन्यासी जी के बनाये हुए ग्रंथो मे दूसरी बार का छपा सत्यार्थप्रकाश ही इस मत का मूल है, स्वामी जी के अनुयायी इसको पत्थर की लकीर समझते है, इसका पाठ करते है और कोई कोई इसकी कथा भी कहाते है , समाजियों मे इसका पाठ होता है और शास्त्रार्थ मे प्रमाण भी उसी से देते है, समाजीयों का ऐसा मत है कि सत्यार्थ प्रकाश का प्रथम संस्करण १८७५ में मुद्रित हुआ, और कुछ तो यह भी कहते है कि १८७५ के आसपास ही स्वामी जी ने वेदभाष्य भी लिख लिया था, परन्तु इस बात में कुछ सच्चाई नहीं, सत्य तो यह है कि सच को छिपाने के लिए धूर्त समाजीयों द्वारा लोगों के दिमाग में ये बात भर दी जाती है कि सत्यार्थ प्रकाश का प्रथम संस्करण १८७५ में और द्वितीय संस्करण १८८२ में छपा परन्तु ये दयानंदी किसी को ये नहीं बताते कि ये संस्करण कब, कैसे और किस मुद्रणालय से छपें? इसका एक कारण यह है कि ज्यादातर समाजी स्वयं नहीं जानते की सत्यार्थ प्रकाश का प्रथम संस्करण कब, कैसे और कहाँ से मुद्रित हुआ?

यह बात इसलिए भी छिपाई गईं कि यदि लोगों को ये सत्य ज्ञात हो जाता की सत्यार्थ प्रकाश का प्रथम संस्करण कब कैसे और किस मुद्रणालय से छपा? तो लोगों के बीच स्वामी दयानंद की छवि सनातनधर्म विरोधी बनकर रह जाती, और भविष्य में कोई व्यक्ति इनके इस संगठन पर थुकना भी पसंद नहीं करता।

इस बात से चिंतित आर्य समाज द्वारा यह एक झूठ गढ़ा कि 'सत्यार्थ प्रकाश' का प्रथम संस्करण १८७५ में मुद्रित हुआ, परन्तु सत्य तो यह है कि सत्यार्थ प्रकाश के लेखन का कार्य राजा जयकृष्णदास द्वारा लेखन कार्य के लिए नियुक्त पं० चन्द्रशेखर की सहायता से जून १८७४ में आरम्भ हुआ, और इस प्रकार १८७५ में स्वामी दयानंद ने प्रथम समुल्लास को एक छोटी सी पत्रिका के रूप में रूप छपवाकर १० अप्रैल १८७५ में आर्य समाज की स्थापना की, जिसमें स्वामी जी ने अपना मत और नियम पर प्रकाश डाला था, यह मात्र कुछ पृष्ठों की एक छोटी सी पत्रिका थी, परन्तु दयानंदी इसे ही सत्यार्थ प्रकाश का प्रथम संस्करण समझते हैं, यही उनकी बड़ी भारी भूल हैं, और यहीं नहीं द्वितीय संस्करण के बारे में भी असत्य बोला गया कि वह दयानंद के जीवित रहते छपीं, जिससे कि भविष्य में दयानंद और आर्य समाज पर कोई उंगली न उठे, पर अफसोस कि झुठ बोलते बोलते यह दयानंदी सत्य को भूल झूठ में ही जीने लगें, पर समाजी शायद यह भूल गये कि सत्य को चिल्लाना नहीं पडता और झूठ को हजार बार रटने से भी वह सत्य में प्रवर्तित नहीं हो सकता।




अब प्रश्न ये उठता हैं कि यदि सत्यार्थ प्रकाश का प्रथम संस्करण १८७५ में मुद्रित न हुआ तो फिर कब हुआ? और दयानंद के वेदभाष्यों और सत्यार्थ प्रकाश कि सच्चाई क्या है? तो इसका उत्तर हमें स्वामी जी के इतिहास में ही मिलेगा तो आइए एक दृष्टि आर्य समाज के इतिहास पर भी डाल लेंते हैं,

सन् १८६० दयानंद लुडकते-लुडकते मथुरा विरजानंद के आश्रम जा पहुँचे, विरजानंद जो कि पाचँ वर्ष की उम्र से ही नेत्रहीन थे, उन्होंने दयानंद को अपना चेला बनाया, यहाँ दयानंद ने 4G की स्पीड से ज्ञान प्राप्त किया, पर आदत से मजबूर स्वामी जी यहाँ भी ज्यादा समय तक न रूक सकें, और सन १८६३ में अपने नेत्रहीन गुरु विरजानंद को भी छोड़कर भाग खड़े हुए, फिर कुछ वर्षों तक वह साधारण सन्यासियों की आकृति से हरिद्वार ऋषिकेश आदि के जंगलों में रहते रहे, कोई उनका नाम भी न जानता था, सन १८६७ के उपरांत वह गंगा जी के निकट गांव और नगरों में ठहर कर जो लोग उनसे मिलते थे उनसे सनातन परम्पराओं जैसे भक्ति भाव, मूर्तिपूजा, अवतार, श्राद्ध, पाप दूर होना, तीर्थ, माहात्म्य आदि का निषेध करते,  कुछ वर्ष पश्चात अचानक दयानंद जी की भेंट राजा जयकृष्णदास हुई, राजा जयकृष्णदास दयानंद की बातों से काफी प्रभावित हुए और उन्हें उनके मतों पर एक पुस्तक लिखने का सुझाव दिया, इस प्रकार राजा जयकृष्णदास की सहायता से दयानंद ने लेखन का काम प्रारंभ किया, (सन १८७४ मे मैक्स मुलर ने अपने वेदभाष्य प्रकाशित किए इसके बाद दयानंद ने अपने वेदभाष्य एवं सत्यार्थ प्रकाश आदि पर लेखन का काम प्रारंभ किया) लेखन का कार्य राजा जयकृष्णदकस द्वारा लेखन कार्य के लिए नियुक्त पं० चन्द्रशेखर की सहायता से जून १८७४ को काशी में आरंभ हुआ, यह सहायता इसी रूप में थी कि दयानंद बोलते जाते थे और चन्द्रशेखर जी लिखते जाते थे, इसके लगभग एक वर्ष बाद स्वामी जी ने प्रथम समुल्लास को एक छोटी पुस्तक 'सत्यार्थ प्रकाश' के नाम से छपवाकर आर्य समाज की स्थापना की, इस पुस्तक की सहायता से स्वामी जी ने केवल अपना मत प्रकट किया था, यहाँ यह साफ कर दें कि १८७५ में मुद्रित 'सत्यार्थ प्रकाश' में मात्र पहला समुल्लास था जिसके द्वारा स्वामी जी ने अपना मत प्रकट किया था, यह पुस्तक पूर्ण 'सत्यार्थ प्रकाश' नहीं हैं जो लोग इसे पूर्ण सत्यार्थ प्रकाश समझते हैं वह उनकी भूल है, आइए अब आपको यह बताते हैं कि कब, कैसे और कहाँ से सत्यार्थ प्रकाश का प्रथम संस्करण छपा देखिए- यह हम पहले ही साफ कर चुके हैं कि सत्यार्थ प्रकाश का लेखन कार्य पं० चन्द्रशेखर द्वारा हुआ स्वामी जी अपने मत प्रचार और शास्त्रार्थ के लिए महीनों शहर से बाहर जाते रहते और जब वापस लौटते तो उसका सब हाल लेखन कार्य के लिए नियुक्त पं० चन्द्रशेखर से कहते और वह उसे ज्यों का त्यों लिख देते इस तरह जब लेखन की सामग्री ज्यादा हो गई तो दयानंद को साहित्य प्रकाशन हेतु मुद्रणालय की आवश्यकता होने लगी, इस कार्य मे दयानंद को आर्य समाज मुराबाद, आर्य समाज मेरठ और राजा जरकृष्णदास से कुछ सहायता प्राप्त हुई, इसके अलावा थियोसोफिकल सोसायटी ने भी इसमें भारी सहायता प्रदान की।

इसके बाद थियोसोफिकल सोसायटी की मदद से प्रिंटिंग मशीन लंदन से भारत मंगवाईं गईं, और फिर इस प्रकार १२ फरवरी १८८० को लक्ष्मीकुंड स्थित विजयनगराधिपति के उद्यानगृह की छत पर वैदिक यंत्रालय की स्थापना हुई, इस प्रकार १८८१ में वैदिक यंत्रालय द्वारा दयानंद यजुर्वेदभाष्य का प्रकाशन किया गया, उसके लगभग एक वर्ष बाद सत्यार्थ प्रकाश का प्रथम संस्करण भी वैदिक यंत्रालय प्रयाग द्वारा १८८२ के अंत तक प्रकाशित किया गया इसमें कुल ग्यारह समुल्लास थे,

दयानंद द्वारा सत्यार्थ प्रकाश पर इसके आगे के लेखन का काम चल रहा था साथ ही दयानंद ऋग्वेद का भी भाष्य कर रहे थे अभी लेखन का काम पूरा भी नहीं हुआ था कि ३० अक्तूबर १८८३ को स्वामी जी नन्हीजान नाम की एक वैश्या के हाथों वीरगति को प्राप्त हो गये।




दयानंद की मृत्यु तक सत्यार्थ प्रकाश का बारहवाँ समुल्लास लिखा जा रहा था और ऋग्वेद के ६ मंडल तक का भाष्य पुरा हो सका था सातवें मंडल के दूसरे सुक्त का भाष्य आरंभ किया था पर वो पुरा न हो सका।

इस प्रकार कुल मिलाकर दयानंद २ वेद का भाष्य भी पुरा न कर सकें, दयानंद की मृत्यु के बाद तो दयानंदी जैसे अनाथ ही हो गये, सनातन धर्मियों के बीच दयानंद और आर्य समाज की छवि सनातन धर्म विरोधी बन चुकी थी, इसका सबसे मुख्य कारण यह रहा था कि, दयानंद ने जीवित रहते अपने इस तथाकथित ग्रंथ सत्यार्थ प्रकाश में सिर्फ और सिर्फ सनातन धर्म ही की निंदा की थी और यही दयानंद का उद्देश्य भी था थियोसोफिकल सोसायटी के साथ अच्छे संबंध होने के कारण दयानंद ने कभी ईसाई और मुस्लिम मत के विरुद्ध कुछ नहीं लिखा, लोगों के मन में आर्य समाज की छवि सनातन धर्म विरोधी बनकर न रह जायें, इस भय से दयानंदीयों ने दयानंद की मृत्यु के बाद ईसाई और मुस्लिम मत के विरुद्ध २ समुल्लास और तैयार किए, जिसे १८८४ के अंत में वैदिक यंत्रालय द्वारा सत्यार्थ प्रकाश के द्वितीय संस्करण में छापा गया और एक झूठ गढ़ा गया कि ये समुल्लास दयानंद के जीवित रहते ही लिखे गए थे पर कुछ समस्याओं के कारण यह छप न सकें यहाँ तक कि द्वितीय समुल्लास और प्रथम समुल्लास के छपने के समय को लेकर भी झूठ बोला गया ताकि आर्य समाज और दयानंद का ये कुकर्म कभी किसी के सामने ने आ सके,

ये झूठ १३३ वर्षों से बोला जा रहा है ये समय इतना लम्बा है कि अब तो समाजी इस झूठ को ही सत्य मान बैठे हैं यही कारण है कि इन समाजीयों से सत्यार्थ प्रकाश के प्रथम संस्करण के बारे में पूछने पर इनके पास कोई जबाव नहीं होता जबकि दोनों ही संस्करण और वेदभाष्य एक ही मुद्रणालय से छापे गए थे जिसकी स्थापना सन् १८८० में हुई थी

ये आर्य समाजीयों की गपडचौथ है कि प्रथम संस्करण १८७५ में और द्वितीय संस्करण १८८२ में छपा, जबकि इस बात में कुछ भी सच्चाई नहीं है, दरअसल ये समाजी रट्टू तोते है इन्हें जितना रटाया जाता है उन्हें उतना ही पता होता है

सत्यार्थ प्रकाश का प्रथम संस्करण उस बदनसीब बच्चे कि तरह है जिसका बाप होते हुए भी १३३ वर्ष से लावारिस की तरह पहचान की उम्मीद में बैठा इंतजार कर रहा है, परन्तु अफसोस की इस तरफ किसी का ध्यान ही जाता, यदि इसकी बात होती तो सब भेद खुल जाता,

अब आइए एक दृष्टि दयानंद के वेद भाष्यों पर भी डाल लेते हैं दरअसल आर्य समाजी जिन वेदभाष्यों को आज दयानंद वेदभाष्यों के नाम से जानते हैं वो यही नहीं जानते कि दयानंद ने तो कभी वेदभाष्य किए ही नहीं थे, बल्कि दयानंद ने मैक्स मुलर के भाष्यों का ही हिन्दी अनुवाद किया है




प्रमाण

मैक्स मुलर ने अपनी प्रति १८७४ में प्रदर्शित की इसके ७ वर्ष पश्चात दयानंद ने अपने वेद भाष्य प्रकाशित किया!!!

मैक्स मुलर और दयानंद की वेद भाष्य्करण में कुछ समानताएं हैं जो बाकी वेद ग्रंथों से समानता नहीं रखतीं। और इसके बाद टी एच ग्रिफ्थ ने भी वेद भाष्य को लिखा जो कि उन्होंने स्वयं ही कहा है कि वो मैक्स मुलर से प्रेरित है।

इन तीनों के भाष्य में सभी ज्यादातर मंत्र संख्या और उनका अर्थ एक सामान है, यह संभव है कि दयानंद ने मैक्स मुलर का वेद भाष्य पढ़ा और उसको अपने अनुसार हिंदी में लिखा जो कि आज दयानंद वेदभाष्य नाम से प्रचलित है, किन्तु यह मूल वेद प्रति नहीं है बल्कि केवल अर्थ का अनर्थ है, जिसमे कई मंत्रों को आधा अधुरा करके लिखा गया है, जिससे अर्थ का समूल नहीं व्यक्त होता बल्कि अलग ही प्रकार से अर्थ को दर्शाने का प्रयास होता है, कई मंत्र ऐसे लिखे गए हैं जो इनके वेद भाष्यों में हैं वो अन्य वेद ग्रंथों में नहीं हैं, आप कोई मंत्र का संख्या काण्ड अध्याय भी दयानंद वंशजों से पूछ लें तो ये अपनी मानसिकता पर आ जाते हैं किन्तु सही जवाब नहीं देते, क्योंकि ये स्वयं भी जानते हैं कि ये जो दयानंद कृत पुस्तकें पढ़ते हैं वे वेद नहीं हैं, केवल छलावा हैं लोगों को वेदों के नाम पर अपनी शिक्षा देने का और अपनी सोच को वेदों के अनुसार न ढालकर लोगों में अपनी सोच के अनुसार वेद ज्ञान को ढाल दिया है, अपने अनुसार इन्होने अर्थ बना रखे हैं अपने अनुसार उनके मंत्र संख्या तय कर दिए!!!

ये जानकारी है कि किसने कब लिखा और किसने कब ये देखिये।

मैक्स मुलर ने १८७४ में वेदभाष्य किए। जिसके २६ वर्ष पश्चात् मृत्यु को प्राप्त हुए,

दयानंद ने १८८१ में यजुर्वेदभाष्य, १८८२ में सत्यार्थ प्रकाश और १८८३ में ऋग्वेदभाष्य लिखते लिखते ही मृत्यु को प्राप्त हुए,

राल्फ टी एच ग्रिफ्थ ने कुछ कुछ ही वर्षों के अंतराल में सारे वेदों को ट्रांसलेट कर दिया! और अंतिम ट्रांसलेशन के ७ साल बाद मृत्यु को प्राप्त हुए।

Hymns of the Rigveda (published 1889) इसके कुल ४ साल में ही सामवेद का पूर्ण अध्ययन और ट्रांसलेशन!!!

Hymns of the Samaveda (published 1893) इसके कुल तीन साल में ही अथर्ववेद का पूर्ण ट्रांसलेशन!!!!!

Hymns of the Atharvaveda (published 1896) इसके बाद तीन साल में ही यजुर्वेद का ट्रांसलेशन!!!!

The Texts of the Yajurveda (published 1899)




सबसे महत्वपूर्ण बात ये है कि ये ख्याल सबसे पहले लिखने वाले मैक्स मुलर और अंत में लिखने वाले राल्फ टी एच ग्रिफ्थ के भाष्य अपने आप में एक सबूत हैं कि इनके मध्य में लिखा गया दयानंद का भाष्य भी इन्हीं से प्रेरित था न कि किसी और से, ये सत्य ज्ञान नहीं बल्कि अंग्रेजों की वो सोच थी जिसपर अंग्रेज हमें चलाना चाहते थे ताकि भारत से पूजा पाठ धार्मिक कर्म काण्ड बंद हों और यही बात दयानंद की सोच में भी थी तो यहाँ दयानंद को अपने भाष्य लिखने के लिए अंग्रेजों से प्रेरणा मिली जिसके कारण आज तक वेदों के अर्थ का अनर्थ होता आ रहा है।

और ना जाने कब तक ऐसे ही मैक्स मुलर के भाष्यों का हिन्दी अनुवाद पढ़ पढ़कर दयानंदी लोग विद्वान बनते रहेंगे?

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